• नये विमर्शों के पैरोकार

    हिंदी साहित्य को अनेक साहित्यकारों ने अपने लेखन से आबाद किया है

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    - ज़ाहिद ख़ान

    28 अगस्त, 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा में जन्मे राजेन्द्र यादव की कहानी, कविता, उपन्यास और आलोचना समेत साहित्य की तमाम विधाओं पर समान पकड़ थी। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक ख़ूब लिखा। 'देवताओं की मूर्तियां', 'खेल खिलौने', 'जहां लक्ष्मी कैद है', 'छोटे छोटे ताजमहल', 'टूटना' जहां राजेन्द्र यादव के प्रमुख कहानी संग्रह हैं, तो 'सारा आकाश', 'उखड़े हुए लोग', 'शह और मात', 'एक इंच मुस्कान' (पत्नी मन्नू भंडारी के साथ सह लेखन), 'अनदेखे अनजान पुल' उनके उपन्यास हैं।

    हिंदी साहित्य को अनेक साहित्यकारों ने अपने लेखन से आबाद किया है, लेकिन कुछ नाम ऐसे हैं, जो अपने साहित्यिक लेखन से इतर दीगर लेखन और उनके द्वारा शुरू किए गए विमर्श से पूरे मुल्क में मशहूर हुए। कथाकार राजेन्द्र यादव का नाम ऐसे ही साहित्यकारों में शुमार होता है। वे जब तक जीवित रहे हिन्दी साहित्य में उनकी पहचान, जीवंत और चर्चित साहित्यकार के तौर पर होती रही। वे 'नई कहानी' के प्रर्वतक में से एक थे। उन्होंने अपने ख़ास दोस्तों कमलेश्वर और मोहन राकेश के साथ मिलकर 'नई कहानी' आंदोलन को नई धार दी। वर्तमान में प्रचलित कई विमर्शों मसलन स्त्री, अल्पसंख्यक, आदिवासी और दलित विमर्श को साहित्य के केन्द्र में लाने और उसे निर्णायक स्थिति पर पहुंचाने में भी राजेन्द यादव का बड़ा योगदान था। साहित्यिक लघु पत्रिका 'हंस' के ज़रिए उन्होंने लगातार हिंदोस्तानी समाज, सियासत और साहित्य में हस्तक्षेप करने का काम किया। प्रेमचंद द्वारा साल 1930 में प्रकाशित पत्रिका 'हंस' के पुनर्प्रकाशन की ज़िम्मेदारी, 31 जुलाई 1986 से एक बार जो उन्होंने अपने कंधे पर ली, तो इसके प्रकाशन का दायित्व उन्होंने अपने मरते दम तक 28 अक्टूबर, 2013 यानी पूरे 27 साल निभाया। 'मेरी-तेरी उसकी बात' के तहत 'हंस' में प्रस्तुत राजेंद्र यादव के सम्पादकीय का पाठक और लेखक दोनों ही इंतज़ार करते थे। गोया कि इन सम्पादकीय से भी कई बार नए विमर्श पैदा हुए। वाद-विवाद और संवाद हुआ। यही उनकी शख़्सियत की ख़ासियत थी।

    28 अगस्त, 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा में जन्मे राजेन्द्र यादव की कहानी, कविता, उपन्यास और आलोचना समेत साहित्य की तमाम विधाओं पर समान पकड़ थी। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक ख़ूब लिखा। 'देवताओं की मूर्तियां', 'खेल खिलौने', 'जहां लक्ष्मी कैद है', 'छोटे छोटे ताजमहल', 'टूटना' जहां राजेन्द्र यादव के प्रमुख कहानी संग्रह हैं, तो 'सारा आकाश', 'उखड़े हुए लोग', 'शह और मात', 'एक इंच मुस्कान' (पत्नी मन्नू भंडारी के साथ सह लेखन), 'अनदेखे अनजान पुल' उनके उपन्यास हैं। 'हंस' में छपे उनके सम्पादकीय किताब 'कांटे की बात' के अंतर्गत बारह खंडों में प्रकाशित हुए हैं। कहानी, उपन्यास के अलावा राजेन्द्र यादव ने आलोचना और निबंध भी लिखे। 'कहानी : स्वरूप और संवेदना', 'कहानी : अनुभव और अभिव्यक्ति', 'प्रेमचंद की विरासत', 'अठारह उपन्यास', 'औरों के बहाने', 'आदमी की निगाह में औरत', 'वे देवता नहीं हैं', 'मुड़-मुड़के देखता हूं', 'अब वे वहां नहीं रहते', 'काश, मैं राष्ट्रद्रोही होता' आदि उनकी आलोचना और निबंधों की किताबें हैं।

    विपुल लेखन, लेखक और पाठकों में ज़बर्दस्त मक़बूलियत के बावजूद, राजेन्द्र यादव को सत्ता से वह मान-सम्मान नहीं मिला, जिसके कि वे वास्तविक हक़दार थे। न ही वे कभी किसी पुरस्कार या सम्मान के पीछे भागे। हिंदी साहित्य में तमाम बड़े-बड़े पुरस्कार पाने वाले आज कितने ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्हें राजेन्द्र यादव जैसी लोकप्रियता और पाठकों का प्यार मिला है ? इस मामले में, डॉ. नामवर सिंह ही अकेले उनका मुकाबला करते थे। इन दोनों के बीच रिश्ता भी अजीब था। राजेन्द्र यादव ने नामवर सिंह के बारे में कुछ भी टिप्पणी की हो या नामवर ने राजेन्द्र के बारे में, मजाल है कि इन टिप्पणियों से दोनों के रिश्तों में कोई खटास आई हो। बल्कि यह रिश्ता और भी ज्यादा मजबूत हो जाता था। देश भर में ऐसे न जाने कितने साहित्यिक आयोजन होंगे, जिसमें दोनों ने एक साथ मंच को शेयर किया था। दोनों का ही अपना-अपना प्रभामंडल था और फैन फॉलोअर्स। बहरहाल सम्मान या पुरस्कार की बात करें, तो उन्हें हिन्दी अकादमी दिल्ली ने साल 2003-04 में अपने सर्वोच्च सम्मान 'शलाका सम्मान' से सम्मानित किया था।

    राजेन्द्र यादव और विवादों का हमेशा चोली-दामन का साथ रहा। विवादों के बिना राजेन्द्र यादव का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता था। चाहे वे अपनी पत्रिका में सम्पादकीय लिखें, या कहीं कोई व्याख्यान दें या फिर 'हंस' की सालाना गोष्ठी का मौका हो, कोई ना कोई विवाद उनके साथ जुड़ ही जाता था। विवादों ने मरते दम तक उनका साथ नहीं छोड़ा। स्त्री और दलित विमर्श को लेकर तो वे हमेशा मुखर रहते थे। स्त्री और दलित विमर्श के पीछे उनकी ख़ुद की क्या सोच और मंशा थी ?, इसका ज़वाब उन्होंने अपने कई इंटरव्यू में विस्तार से दिया था। उनके बारे में कोई भी राय बनाने से पहले, इसे जानना बेहद ज़रूरी है। उन्हीं के अल्फ़ाज़ों में, ''साहित्य में इस तरह का विमर्श कोई नई बात नहीं है। यह बहुत दिनों से चला आ रहा है।

    साहित्य हमेशा उन्हीं पक्षों के बारे में बात करता है, जो दबे-कुचले शोषित वर्ग हैं। साहित्य हमेशा उन्हीं लोगों की आवाज़ बनता है, जिनके पास आवाज़ नहीं। लिहाज़ा मैंने कोई नया काम नहीं किया। मैंने वही किया, जो मुझे करना चाहिए था। यह विमर्श बहुत दिनों से चला आ रहा है। हमारा मध्यकालीन साहित्य इसका प्रमाण है। हमारा जो दलित साहित्य है, वह हमेशा श्रम को प्रधानता देता है। 'हंस' के माध्यम से मैंने कोशिश यह की कि उन्हें एक प्लेटफॉर्म दिया और उन्हें एक सैद्धांतिक आधार दिया। हमारा जो अभी तलक का साहित्य था, उसमें बाहर के लोगों का कोई प्रवेश नहीं था। इसमें दलित और स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था। साहित्य भी बड़े-बड़े केन्द्रों जैसे दिल्ली, बनारस, इलाहाबाद आदि बड़े शहरों तक ही सीमित था। विषय बहुत सीमित थे। हमने साहित्य का लोकतंत्रीकरण किया। हमने हिंदी साहित्य के दरवाज़े सबके लिए खोले। फिर हमने केवल स्त्री दलित विमर्श ही नहीं किया। हमने भाषा का विमर्श किया, साम्प्रदायिकता पर विमर्श किया।

    साम्प्रदायिकता के जो सवाल हैं, हमने उन्हें प्रमुखता से उठाया। कई नए विमर्श किए। लेकिन यह कुछ समस्याएं थीं, जो विषय लोगों को बहसों में परेशान किए हुए थे। उनके दिमाग में जो चल रहा था, हमने उनको आवाज़ दी। हुआ यह कि हमें कुछ लोगों ने केवल दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक विमर्शों के खाते में बांध दिया। साहित्य में एक वर्ग का आधिपत्य था। जब दूसरे वर्ग साहित्य में आए, तो उन्हें लगा कि अरे, यह तो हमारे क्षेत्र में हस्तक्षेप है। यह साहित्य में क्यों आ रहे हैं ? यह तो घुसपैठिए हैं। ग़र यह साहित्य में आ गए, तो हमारा क्या होगा ? स्त्री और दलित की जो समस्याएं हैं, ये दोनों लगभग एक जैसी समस्याएं हैं। यह दोनों नाभिनाल की तरह जुड़े हुए हैं। जिन पर हमने अभी तक ध्यान नहीं दिया था। हमने उन पर ध्यान दिया।''

    राजेन्द्र यादव जब तक 'हंस' के सम्पादक रहे, उन्होंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि यह पत्रिका, हिन्दी जगत में सिर्फ साहित्यिक पत्रिका के तौर पर नहीं पहचानी जाए, बल्कि यह गंभीर विमर्श की पत्रिका के तौर पर पढ़ी जाए। इससे नवोदित रचनाकार और पाठक दोनों कुछ न कुछ सीखें। सच बात तो यह है कि रचनात्मकता के साथ जुड़ी अनेक समस्याओं को, जो एक संवेदनशील लेखक-पाठक को प्रभावित करती हैं, उन्होंने उसे दीगर सम्पादकों के बनिस्बत ज्यादा बेहतर तरीके से जाना-समझा और उन्हें अपनी पत्रिका में अहमियत के साथ जगह दी। उनके इस काम की वजह से उन पर कई इल्जाम भी लगे। मसलन ''स्त्री विमर्श के नाम पर वे अपनी पत्रिका में सिर्फ देह ही देह प्रस्तुत करते हैं ! या फिर दलित विमर्श के नाम पर गालियां दी जा रहीं हैं !'' अपनी इन आलोचनाओं और छींटाकशी पर राजेन्द्र यादव जरा सा भी विचलित नहीं होते थे। आलोचना का ज़वाब, वे इतनी तार्किकता से

    देते कि विरोधी भी उनका लोहा मान लेते थे। दलित विमर्श की आलोचना पर उनकी कैफ़ियत होती, ''दलित जब अपनी बात रखेगा, तो वह अपनी तरह की बात होगी। दलितों के जो पक्षकार हैं, जब वह अपनी बात रखते हैं, तो उन्हें लगता है कि यह कैसी बात है ? इस तरह का तो हमारे पास कोई एजेंडा ही नहीं था। ज़ाहिर है, दलित जब ख़ुद अपनी बात रखेगा, तो वह बात अलग तरह की होगी। उसके भटकाव, उसके रास्ते अलग होंगे। उसकी शैली, सब बातें अलग होंगी।'' उनकी यह बात सोलह आना सच भी है। एक दलित साहित्यकार और एक गैर दलित साहित्यकार दोनों का साहित्य उठा लीजिए, इनमें फ़क़र् साफ दिखलाई दे जाएगा। राजेन्द्र यादव, किसी विषय पर अपना जो स्टेंड लेते, उस पर आख़िर तक क़ायम भी रहते थे। किसी विचारधारा, दवाब या प्रलोभन में उन्होंने अपना स्टेंड बदला हो, ऐसी मिसाल बहुत कम मिलती है। इन मसलों पर उनका बेशुमार लेखन, इस बात की गवाही भी देता है।

    राजेन्द्र यादव अकेले अदीब ही नहीं थे, बल्कि एक बेदार दानिश्वर भी थे। नए विमर्शों के पैरोकार थे। जिनकी नज़र में दीगर मसलों की भी उतनी ही अहमियत थी, जितनी अदब की। कोई भी संवेदनशील रचनाकार, उनसे अंजान रह भी नहीं सकता। यही वजह है कि वे वक्त आने पर एक्टिविस्ट के रोल में आ जाते थे और यही अदा उनके चाहने वाले पसंद करते थे। लघु पत्रिकाओं को अकेले छोड़ दीजिए, देश में दीगर पत्र-पत्रिकाओं में भी आज कितने ऐसे संपादक हैं, जो खम ठोककर अपनी बात रखते हैं ?

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